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हिन्दी साहित्य का इतिहास

श्यामचन्द्र कपूर

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2555
आईएसबीएन :81-85826-71-4

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इसमें हिन्दी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत किया गया है.....

Hindi Sahitya Ka Itihas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना


हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं से सम्बन्धित जितना हिन्दी साहित्य वर्तमान समय में प्रकाशित हुआ, और हो रहा है, उतना विगत काल में कभी नहीं हुआ। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर भी सर जार्ज ग्रियर्सन से आज तक विभिन्न ग्रन्थ प्रकाश में आए। जिनमें से कुछ तो लेखकों-कवियों की सूची मात्र हैं और कुछ शोध-प्रबन्ध के रूप में हैं। काफी समय से ऐसे ग्रन्थ का अभाव महसूस हो रहा था जो विद्यार्थियों की आवश्यकताओं के साथ-साथ शोधार्थी तथा हिन्दी साहित्येतिहास में रुचि रखनवाले अन्य मनीषियों की आवश्यकताओं की भी पूर्ति कर सके। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस पुस्तक को लिखा गया है।

इतिहास किसी काल-विशेष की घटनाओं का तिथिवार अंकन मात्र ही नहीं है और न ही राजा/प्रजा की संतुष्टि हेतु लिखित अतिशयतापूर्ण वर्णन ही इतिहास होता है। इतिहास लिखने के लिए निरपेक्ष दृष्टि परमावश्यक है। यह भी आवश्यक है कि लेखक अपनी व्यक्तिगत निष्ठाओं को त्यागकर तत्कालीन घटनाओं का यथातथ्य वर्णन विश्लेषण करे। परन्तु वर्तमान समय में इतिहास को (राजनीतिक सामाजिक या साहित्यिक कोई भी हो) विकृत करने की एक परम्परा हो गई है। कारण भी हो सकते हैं; परन्तु आज के ‘कारण’ के लिए कल का इतिहास नहीं बदला जा सकता। और बदला जाता है तो वह इतिहास नहीं, इतिहास के अतिरिक्त अन्य कुछ भले ही हो।

हिन्दी साहित्य का इतिहास भी सुविधाभोगवश या अन्य कारणों से आज इस छूत से नहीं बच पाया है। हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस मत से असहमत है कि मैं प्रस्ताव करता हूँ कि हमारे पाठक साहित्यिक चेतना को जाति की स्वाभाविक चेतना के रूप में देखें, अस्वाभाविक अधोगति के रूप में नहीं। ऐसी दृष्टि से इतिहास विकृत ही होता है, हुआ भी है। इस विषय में हम श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी जी की विचारधारा का समर्थन करते हैं। जब हम साहित्य के इतिहास की बात करते हैं तो हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कवियों या लेखकों की रचनाओं का परिचय मात्र ही इतिहास नहीं है, तत्कालीन साहित्य की आधारभूत प्रवृत्तियों, विकास के सोपान क्रम का यथातथ्य विश्लेषण आदि भी साहित्य इतिहास में समाहित होता है। और यही इतिहास लेखक का दायित्व भी है। युग विशेष की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियाँ क्या थीं, उनकी पृष्ठभूमि क्या थी, देश प्रदेश के स्तर पर कौन सी शक्तियाँ कार्यरत थीं, चिन्तनधारा की दशा को प्रभावित कर रही थीं-आदि का निष्पक्ष वर्णन विश्लेषण इतिहास दृष्टि के लिए परमावश्यक है। इन्हीं मानदण्डों को आधार बनाकर इस पुस्तक की रचना की गई है। विशेषरूप से भक्तिकालीन साहित्य में हमने इन्हीं आधारभूत बातों को ध्यान में रखकर तत्कालीन परिस्थितियों का आकलन किया है।

हिन्दी साहित्य में काल विभाजन आज भी गम्भीर समस्या बना हुआ है। अधिकांश विद्वान् आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के विभाजन को ही कुछ नाम परिवर्तनों के साथ उचित मानते हैं। हम भी उनसे सहमत हैं, साथ ही आधुनिक काल के द्विवेदी युग को हमने सन् 1908 से 1915 तक माना है; जबकि अन्य विद्वान् द्विवेदी युग का प्रारम्भ सन् 1900 से मानते हैं। हमारा तर्क है, कि द्विवेदी जी 1908 में साहित्य में क्षेत्र प्रतिष्ठापित हो पाए थे, यद्यपि उन्होंने सरस्वती का सम्पादन 1902 में प्रारम्भ किया था। पाठकों की सुविधा के लिए हमने सभी प्रमुख विद्वानों के काल विभाजन को भी पुस्तक में स्थान दिया है।

दूसरी बात भक्तिकाल की परिस्थितियों के विषय में प्रमुख है। विभिन्न विद्वानों की इस विषय में विभिन्न धारणाएँ हैं। वर्तमान में जबकि ‘औरंगजेब की सहिष्णुता’ पर शोध प्रबन्ध लिखे जा रहे हैं, इस विषय का यथातथ्य विश्लेषण परमावश्यक है कि इतिहास को अपने मूलरूप में बनाए रखा जाय। अतः हमने तत्कालीन परिस्थितियों का स्वतन्त्र आकलन इस पुस्तक में किया है।

वर्तमान काल में हिन्दी की विभिन्न विधाओं पर प्रचुर साहित्य लिखा जा रहा है। इस काल के समस्त लेखकों का नामोल्लेख-भर भी करना हो तो पृथक् ग्रन्थ की रचना करनी पड़ेगी। अतः इस पुस्तक में हमने सभी विधाओं का विश्लेषण विवरण देने के साथ -साथ उन प्रमुख साहित्यकारों का साहित्यिक विवरण भी प्रस्तुत किया है जिन्होंने काल-विशेष को प्रभावित किया अथवा विधा-विशेष को नई दिशा प्रदान की। ऐसा करने में अनेक साहित्यकारों के नाम तक पुस्तक में नहीं आ पाए हैं। पुस्तक के कलेवर को देखते हुए हमारे लिए यह सम्भव भी नहीं था। इस कार्य को तो किसी संस्था स्तर पर ही किया जा सकता है।

मौलिकता का इतिहास से सम्बन्ध कम ही होता है। अतः इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखनेवाले विभिन्न विद्वानों के विचारों का भरपूर उपयोग किया गया है। ऐसा करने से पाठकों को लाभ ही होगा, ऐसा हमारा विश्वास रहा है। विशेष रूप से डॉ. मो. मा. तौहान व प्रा. स. बैस आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, डॉ. नगेन्द्र के प्रति हम आभारी हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से आवश्यक सामग्री का उपयोग किया है, क्योंकि इस सबके बिना इतिहास लेखन सम्भव नहीं था।
हमारा प्रयास रहा है कि उपलब्ध प्रामाणिक सामग्री छूटने न पाए और सभी आवश्यक सूचनाओं को भी छात्र हित की दृष्टि एकत्र कर दिया जाय, जिससे पाठकों को हिन्दी साहित्य से सम्बन्धित पूर्ण जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध हो सके।

श्यामचन्द्र कपूर

:1:


हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास


संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले भी सम्भव है कोई भाषा विद्यमान रही हो परन्तु आज तक उसका कोई लिखित रूप नहीं प्राप्त हो पाया। इससे यह अनुमान होता है कि सम्भवतः आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा ऋग्वेद की ही भाषा, वैदिक संस्कृत ही थी। विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की भी एक काल अथवा एक स्थान पर रचना नहीं हुई। इसके कुछ मन्त्रों की रचना कन्धार में, कुछ की सिन्धु तट पर, कुछ की विपाशा-शतद्रु के संभेद (हरि के पत्तन) पर और कुछ मन्त्रों की यमुना गंगा के तट पर हुई। इस अनुमान का आधार यह है कि इन मन्त्रों में कहीं कन्धार के राजा दिवोदास का वर्णन है, तो कहीं सिन्धु नरेश सुदास का। इन दोनों राजाओं के शासन काल के बीच शताब्दियों का अन्तर है। इससे यह अनुमान होता है कि ऋग्वेद की रचना सैकड़ों वर्षों में जाकर पूर्ण हुई और बाद में इसे संहित-(संग्रह)-बद्ध किया गया।
ऋग्वेद के उपरान्त ब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्र ग्रन्थों का सृजन हुआ और इनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा से कई अंशों में भिन्न लौकिक या क्लासिकल संस्कृत है। सूत्र ग्रन्थों के रचना काल में भाषा का साहित्यिक रूप व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो गया था। तब यह भाषा संस्कृत कहलायी। तब छन्दस् वेद तथा लोक-भाषा (लौकिक) में पर्याप्त अन्तर स्पष्ट रूप में प्रकट हुआ।

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत है कि पतञ्जलि (पाणिनि की व्याकरण अष्टाध्यायी के महाभाष्यकार) के समय में व्याकरण शास्त्र जानने वाले विद्वान् ही केवल शुद्ध संस्कृत बोलते थे, अन्य लोग अशुद्ध संस्कृत बोलते थे तथा साधारण लोग स्वाभाविक बोली बोलते थे, जो कालान्तर में प्राकृत कहलायी। डॉ. चन्द्रबली पांडेय का मत है कि भाषा के इन दोनों वर्गों का श्रेष्टतम उदाहरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, जबकि अशोक वाटिका में पवन पुत्र ने सीता से ‘द्विजी’ (संस्कृत) भाषा में बात न करके ‘मानुषी’ (प्राकृत) भाषा में बातचीत की। लेकिन डॉ. भोलानाथ तिवारी ने तत्कालीन भाषा को पश्चिमोत्तरी मध्य देशी तथा पूर्वी नाम से अभिहित किया है।

परन्तु डॉ. रामविलास शर्मा आदि कुछ विद्वान्, प्राकृत को जनसाधारण की लोक-भाषा न मानकर उसे एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि प्राकृत ने संस्कृत शब्दों को हठात् विकृत करने का नियम हीन प्रयत्न किया। डॉ. श्यामसुन्दर दास का मत है-वेदकालीन कथित भाषा से ही संस्कृत उत्पन्न हुई और अनार्यों के सम्पर्क का सहारा पाकर अन्य प्रान्तीय बोलियाँ विकसित हुईं। संस्कृत ने केवल चुने हुए प्रचुर प्रयुक्त, व्यवस्थित, व्यापक शब्दों से ही अपना भण्डार भरा, पर औरों ने वैदिक भाषा की प्रकृति स्वच्छान्दता को भरपेट अपनाया। यही उनके प्राकृत कहलाने का कारण है।’’

व्याकरण के विधि निषेध नियमों से संस्कारित भाषा शीघ्र ही सभ्य समाज की श्रेष्ठ भाषा हो गई तथा यही क्रम कई शताब्दियों तक जारी रहा। यद्यपि महात्मा  बुद्ध के समय संस्कृत की गति कुछ शिथिल पड़ गई, परन्तु गुप्तकाल में उसका विकास पुनः तीव्र वेग से हुआ। दीर्घकाल तक संस्कृत ही राष्ट्रीय भाषा के रूप में सम्मानित रही।
जनसाधारण अल्प शिक्षित वर्ग के लिए संस्कृत के नियमों का अनुसरण कठिन था, अतः वे लोकभाषा का ही प्रयोग करते थे। इसीलिए महावीर स्वामी ने जैन मत के तथा महात्मा बुद्ध ने बौद्ध मत के प्रसार के लिए लोकभाषा को ही अपनी वाणी का माध्यम बनाया। इससे लोकभाषा को ऐसी प्रतिष्ठा का पद प्राप्त हुआ, जो उससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुआ था।

फिर भी संस्कृत भाषा का महत्त्व कभी कम नहीं हुआ। भास, कालिदास आदि के नाटकों में सुशिक्षित व्यक्ति तो संस्कृत बोलते हैं, परन्तु अशिक्षित पात्र —विट-चेट विदूषक तथा दास-दासियाँ आदि प्राकृत में बात करते हैं। परन्तु ये सब जिन प्रश्नों के उत्तर प्राकृत में देते हुए दिखाई गए हैं, उन प्रश्नों को संस्कृत में ही पूछा गया है। इससे स्पष्ट होता है। कि जनसाधारण भी संस्कृत को अच्छी तरह समझ लेते थे, भले ही बोलने में उन्हें कठिनाई प्रतीत होती हो। पंचतंत्र में विष्णु शर्मा ने संस्कृत भाषा में ही राजकुमारों को शिक्षा प्रदान की थी। डॉ. आर.के. मुकर्जी ने कहा है, ब्राह्मण काल एवं उसके पश्चात् भी निःसन्देह संस्कृत सामान्य जनता के धार्मिक कृत्यों पारिवारिक संस्कारों तथा शिक्षा एवं विज्ञान की भाषा थी।’’1 सरदार के.एम. पणिक्कर ने कहा है संस्कृत विश्व की संस्कृति और सभ्यता की भाषा है जो भारत की सीमाओं के पार दूर-दूर तक फैली हुई थी।’’


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